DNA rules of life and death have changed | DNA ANALYSIS: कोरोना काल ने दिए अंतिम संस्कार…


नई दिल्ली: इरफान खान के जनाजे में सिर्फ 12 लोग शामिल हुए थे, जबकि ऋषि कपूर के अंतिम संस्कार में भी सिर्फ 20 लोगों को ही शामिल होने की इजाजत मिली. यानी कोरोना वायरस के सामने हर कोई मजबूर है. पूरी दुनिया में मृत लोग अब सिर्फ एक शरीर बनकर रह गए हैं. परिवार का कोई सदस्य भी अब मरने वाले के शरीर को गले नहीं लगा सकता, छूकर अंतिम स्पर्श की अऩुभूति भी नहीं कर सकता. यानी इंसानी भावनाओं के बीच भी कोरोना वायरस की दीवार आ गई है. वैसे तो शरीर नश्वर ही होता है, लेकिन जिन शरीरों में हम जीवन भर सांस लेते हैं, उसकी ये नियति दिल तोड़ने वाली है.

कई लोगों के लिए जीवन के साथ-साथ अंतिम यात्रा भी अब अकेलेपन का नाम बन गई है और अंतिम बार अलविदा कहने की रस्में पहले से छोटी हो गई हैं.

हिंदुओं के अंतिम संस्कार सोशल डिस्टेंसिंग का ध्यान रखते हुए किए जा रहे हैं. मृत लोगों की अस्थियां विसर्जन के लिए लंबा इंतजार कर रही हैं. मुस्लिम और ईसाई धर्म में शव को दफनाने की परंपरा है, लेकिन ये परंपरा भी अब बदलने लगी है. इन धर्मों में जब किसी के शव को दफनाया जाता है तो बहुत सारे लोग मिलकर धीरे धीरे ताबूत को कब्र में उतारते हैं. ताबूत बहुत भारी होते हैं लेकिन लोगों की संख्या कम होने की वजह से अब इन ताबूतों को धीरे धीरे उतारने की बजाय सीधे कब्र में धक्का दे दिया जाता है.

अमेरिका जैसे देशों में तो अंतिम संस्कार को लेकर नियम बहुत कड़े हैं. वहां शवों को एक नहीं बल्कि दो-दो बॉडी बैग्स में बंद किया जाता है और शव का चेहरा भी फेस मास्क से ढंका जाता है. 50-60 साल के वैवाहिक जीवन के बाद भी लोग अंतिम संस्कार के दौरान अपने मृत जीवन साथी को गले तक नहीं लगा पा रहे.

बहुत सारे देशों में तो अब अंतिम सस्कार को ऑनलाइन देखने की व्यवस्था की गई है. यानी अगर आपको किसी को श्रद्धांजलि देनी है तो ऐसा आप अपने घर पर रहते हुए भी कर सकते हैं. इसी तरह इस दौरान जिन बच्चों का जन्म हो रहा है उनके चेहरों को पैदा होते ही फेस शील्ड से ढंक दिया जा रहा है. अगर मां को कोरोना वायरस है तो वो अपने बच्चे को सीने से भी नहीं लगा सकती. कुल मिलाकर एक महामारी ने मृत्यु और जन्म की प्रथाओं को हमेशा के लिए बदल दिया है.

वर्ष 2012 में इरफान की खान की एक फिल्म Life Of Pi आई थी इसमें इरफान कहते हैं कि अगर आप जीवन के अंत को स्वीकार भी कर लें तो भी ये स्वीकार करना बहुत मुश्किल है कि आप अपनों को आखिरी बार अलविदा नहीं कह पाए.

आध्यात्मिक गुरु ओशो ने एक बार कहा था कि हर इंसान मृत्यु से भयभीत है, इसकी वजह सिर्फ़ ये है कि उसने जीवन का स्वाद कभी लिया ही नहीं है. ओशो ने अपने प्रवचन में कहा था कि जो व्यक्ति ये जानता है कि जीवन क्या है, वो कभी मृत्यु से नहीं डरता, वो मृत्यु का स्वागत करता है.

एक सच ये भी है कि मृत्यु भेदभाव नहीं करती, जबकि जन्म हमेशा भेदभाव करता है, अन्याय करता है. आपने गौर किया होगा कि जन्म होते ही इंसान की पहचान और उसका जीवन, धर्म, जाति, देश और अमीरी या ग़रीबी के आधार पर बंट जाता है.

जन्म लेते ही ये तय हो जाता है कि कोई किस जाति या धर्म से होगा. किसी भी इंसान का जन्म किसी अमीर के घर में हो सकता है या किसी गरीब के घर में भी हो सकता है. इस पर किसी का वश नहीं होता. इसी तरह कोई संपन्न देश में पैदा होता है, तो कोई गरीब देश का निवासी बन जाता है. हैरानी की बात ये है कि जीवन का पूरा चक्र इस बात पर निर्भर है कि आप कहां पैदा होंगे और किस घर में पैदा होंगे, जबकि मृत्यु के मामले में कुछ भी तय नहीं है.

मृत्यु की रेखा के पार हर व्यक्ति बराबर है, मृत्यु फिल्म नहीं देखती, मृत्यु खेल नहीं देखती, मृत्यु किसी स्टारडम से प्रभावित नहीं होती. मृत्यु बंटवारा नहीं करती, वो राजा और रंक को बराबरी पर लाकर खड़ा कर देती है. ये वो आध्यात्मिक सत्य है जो हर इंसान को याद रखना चाहिए. जीवन भले ही धर्म और पंथ निरपेक्ष ना हो, लेकिन मृत्यु धर्मनिरपेक्ष और पंथ निरपेक्ष है. मृत्यु के दरबार में हर कोई बराबर है.

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