नई दिल्ली: भारत के साथ वर्षों से मधुर संबंध साझा करने वाले नेपाल के रुख में अचानक आई तल्खी नई दिल्ली के लिए चिंता का विषय तो है ही, साथ ही यह सवाल भी खड़े करती है कि आखिर पड़ोसी नेपाल को एकदम से हुआ क्या? गौर करने वाली बात यह है कि नेपाल ने ऐसे वक्त पर सीमा विवाद को हवा दी, जब भारत और चीन की सेना लद्दाख में आमने-सामने हैं. इससे कहीं न कहीं यह संदेश जाता है कि काठमांडू में होने वाले फैसलों में चीन का दखल काफी बढ़ गया है. और यदि नेपाल के पिछले राजनीतिक संकट पर ध्यान दें, तो चीन के साथ उसके गठजोड़ की आशंका को बल मिलता है.
मई की शुरुआत में नेपाल में राजनीतिक संकट गहरा गया था और नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने सार्वजनिक रूप से प्रधानमंत्री के.पी शर्मा ओली (KP Sharma Oli ) के इस्तीफे की मांग शुरू कर दी थी. कहा जाता है कि इस संकट से बचने के लिए ओली ने चीन से मदद मांगी थी, और उसी मदद की कीमत वह भारत के साथ सीमा विवाद खड़े करके चुका रहे हैं.
चीनी राजदूत होउ यानिकी (Hou Yanqi ) ने ओली की सरकार को बचाने के लिए कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के साथ कई बैठकें कीं और संकट को हल किया. इसके बदले में उसने चीन को निशाना बनाने वाले एक अंतरराष्ट्रीय आंदोलन के खिलाफ नेपाल का समर्थन भी मांगा था. अधिकांश राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि भारत के साथ विवाद के पीछे नेपाल नहीं, बल्कि व्यक्तिगत रूप से ओली हैं. ओली ने पार्टी चेयरमैन और प्रेसिडेंट दोनों पदों पर कब्जा करने के लिए यूएमएल और एमसी की विलय प्रक्रिया में हेरफेर किया था. जबकि उन्होंने दूसरों के लिए एक व्यक्ति, एक पद के सिद्धांत को लागू किया, लेकिन खुद उस पर अमल नहीं किया. इस मुद्दे पर भी विपक्षी नेताओं ने काफी हंगामा मचाया था.
के.पी शर्मा ओली ने नेपाल पर एकछत्र राज के लिए कई चालें चलीं. उन्होंने अपने करीबी विश्वासपात्र को राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठाया. जब माधव नेपाल और प्रचंड द्वारा पार्टी में उनके नेतृत्व का विरोध किया गया, तो ओली ने फिर मदद के लिए चीनी राजदूत से संपर्क साधा. जिसके बाद उन्होंने माधव नेपाल और प्रचंड पर दबाव बनाकर ओली को संकट से निकाला. यही वजह है कि अब प्रधानमंत्री ओली चीन के अहसानों की कीमत भारत के साथ रिश्ते खराब करके चुका रहे हैं.
चीन की अहम भूमिका
यह भी माना जाता है कि चीन ने नेपाल की दो सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टियों के गठबंधन में अहम भूमिका निभाई. 2018 में केपी शर्मा ओली और पुष्प कमल दहल उर्फ़ प्रचंड ने नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण के लिए हाथ मिलाया था. यहीं से नेपाल की राजनीति में नई दिल्ली के बजाय बीजिंग का प्रभाव बढ़ना शुरू हुआ. पहले नेपाल ने कभी भारत के साथ इस तरह का विवाद खड़ा नहीं किया. उसकी तरफ से कैलाश मानसरोवर यात्रा को सुगम बनाने के लिए लिपुलेख के पास भारत द्वारा किये जा रहे सड़क निर्माण पर आपत्ति नहीं उठाई गई. लेकिन अब वह भारतीय क्षेत्रों को अपना बता रहा है. गौरतलब है कि नेपाली सरकार ने बुधवार को देश का एक नया विवादित नक्शा जारी किया, जिसमें लिपुलेख, कालापानी, लिंपियाधुरा के भारतीय क्षेत्रों को अपना बताया गया है.
भारत को स्वीकार नहीं दावा
भारतीय विदेश मंत्रालय के आधिकारिक प्रवक्ता अनुराग श्रीवास्तव का इस विषय पर कहना है कि नेपाल सरकार का यह कदम ऐतिहासिक तथ्यों और साक्ष्यों पर आधारित नहीं है. साथ ही यह कूटनीतिक संवाद के माध्यम से सीमा विवाद को हल करने के लिए द्विपक्षीय समझ के विपरीत है. भारत ऐसे दावों को कभी स्वीकार नहीं करेगा. उन्होंने आगे कहा कि नेपाल इस मामले में भारत की स्थिति से अच्छी तरह से परिचित है. हम नेपाल सरकार से इस तरह के अनुचित दावे से परहेज करने और भारत की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करने का आग्रह करते हैं. हमें उम्मीद है कि नेपाली नेतृत्व राजनयिक बातचीत के लिए सकारात्मक माहौल बनाएगा.